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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि

अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : श्रीवेदमाता गायत्री ट्रस्ट शान्तिकुज प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4105
आईएसबीएन :000

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गुरुदेव की वचन...

समय और चेतना से परे


हम देश के यथार्थ को क्यों नहीं समझ पाते ? महान् अण-विज्ञानी आइंस्टीन अपने सापेक्षवाद सिद्धांत (थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी) के द्वारा उत्तर देते हैं-"हमारे साधारण विचार, समय और पदार्थमय हो गए हैं, (वी आर वाउंड टु टाइम एंड स्पेस)। हम इनसे मुक्त नहीं हो पा रहे। किंतु हमारा समय और स्थान या पदार्थ से बँध जाना समस्त प्रकृति या विराट् जगत् का दर्शन कराने में असमर्थ है। हम प्रकृति की वास्तविकता को तभी पहचान सकते हैं, जब समय और स्थान (टायम एंड स्पेस) से हम ऊपर उठ जाएँ।"

समय और स्थान क्या है ? यह वास्तव में कुछ भी नहीं है, हमारे मस्तिष्क की कल्पना या रचना मात्र है। लोग कहा करते हैं कि मैं आठ बजकर आठ मिनट पर घर से निकला। मेरी सगाई २ जुलाई को सायं सात बजे हुई। राम और श्याम में परसों दोपहर १२ बजे लड़ाई हो गई। किशोर ने मई १9५५ में हाईस्कूल की परीक्षा दी आदि-आदि। इन वाक्यों को ध्यान से कई बार पढ़ें तो हमें मालूम होगा कि, प्रत्येक समय किसी न किसी घटना से जुड़ा हुआ है। समय दरअसल कोई वस्तु ही नहीं है। यदि कोई घटना या क्रिया न हुई होती तो हमारे लिए समय का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। आठ बजकर आठ मिनट, सात बजे, मई सन् २०००, परसों यह सब घटनाओं की सापेक्षता (रिलेटिविटी) मात्र हैं। जिसे हम २००० कहते हैं, उसे हम संवत् २०५७ भी कह सकते हैं। शक संवत् के हिसाब से वह कोई और ही तिथि होगी, आर्य संवत् प्रणाली के अनुसार वह और ही कुछ होगा, क्योंकि वे लोग समय की माप उस अवस्था से करते हैं, जब से यह पृथ्वी या पृथ्वी में जीवन अस्तित्व में आया। कल्पना करें कि, पृथ्वी का अस्तित्व ही न होता, तब हमारे लिए समय क्या रह जाता—कुछ भी तो नहीं। यदि हम घटनाओं से परे हो पाएँ, तो समय नाम की कोई वस्तु संसार में है नहीं। ऐसी कल्पना तभी हो सकती है, जब हम सारा चिंतन, क्रियाकलाप छोड़कर मस्तिष्क बन जाएँ या मस्तिष्क में केंद्रीभूत हो जाएँ अर्थात् समय मस्तिष्क की रचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जब हम अपने आपको समय के ऊपर उठकर देखते हैं, तो हमें अपनी मस्तिष्कीय चेतना के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता, तब हमारा सही रूप से एक भिन्न व्यक्तित्व होता है। तब हम लगातार विचार, ज्ञान, अनुभूति या प्रकाश की किरण के समान हो जाते हैं और स्थूल शरीर के प्रति अपना मोह भाव समाप्त हो जाता है। मांडूक्यकारिका (२।१४) में इसी बात को शास्त्रकार ने यह शब्द दिये हैं-

चित्ता काला हि येऽन्तस्तु द्वय कालाश्च ये बहिः।
कल्पिता एव ते सर्वे विशेषो नान्यहैतुकः।।


"हे शिष्य ! यह संसार वास्तव में चित्त की अनुभूति और घटनाओं की सापेक्षता मात्र है, सब कुछ कल्पित है। दृश्य संसार में विशेष कुछ भी नहीं है।"

महर्षि पतंजलि ने यही तथ्य इस तरह प्रतिपादित किया है-

क्षणतत्क्रमयोः संयामाद् विवेकजं ज्ञानम्।
-पातंजलि योग दर्शन ३।५२

जब हम अपना ध्यान समय के अत्यंत छोटे टुकड़े क्षण में जमाते हैं तभी संसार की सही स्थिति का निरीक्षण कर सकते हैं।

समय की भाँति ही मनुष्य के सामने आने वाली सभी वस्तुएँ भी सापेक्ष हैं। भौतिक पदार्थ साधारणतया कोई अपरिवर्तनीय (आब्सोल्यूट) मूल्य नहीं रखते, वरन् चुने गये प्रसंग के अनुसार आप जिसे मिट्टी कहते हैं, यदि उसे आप किसी रसायनज्ञ के पास ले जावें तो वह उस ढेले का रासायनिक विश्लेषण (केमिकल एनालिसिस) करेगा और बतायेगा कि, इसमें इतना भाग धातु के कण, इतना नमक है, इतना पानी है और अमुक-अमुक गैसों के समूल कण। इस तरह हमें दिखाई देने वाले सभी भौतिक पदार्थ वैज्ञानिकों की दृष्टि से कार्बनिक (आर्गनिक) या अकार्बनिक (इनार्गेनिक) कण मात्र होते हैं। उन्हीं से यह सारा संसार बना है।

हम जब तक अपने स्थूल रूप से देखते हैं, तब तक संसार की स्थूलता दृष्टिगोचर होती है, लेकिन यहाँ भी किसी प्रकार की सत्यता नहीं है। प्रत्येक परमाणु संसारमय है अर्थात् हर परमाणु की रचना एक भरे-पूरे संसार जैसी है, उसमें पूरे के पूरे संसार के दर्शन कर सकते हैं और उस पर भी मस्तिष्क (सतर्कता) बैठा हुआ होता है। वैज्ञानिक पद्धति से विश्लेषण करने से पता चलता है कि, परमाणु भी अंतिम सत्य नहीं है, वह और भी सूक्ष्म आवेशोंइलेक्ट्रॉन, प्रोट्रॉन, पाजिट्रॉन और न्यूट्रॉन से बना होता है। यों समझाने के लिए इन्हें बिंदु के रूप में दिखाया जाता है, किंतु इलेक्ट्रॉन पदार्थ नहीं, तरंग रूप (वेविकल शेप) में है। अर्थात् हम जिन पदार्थों को देख रहे हैं, यदि अपने देखने की स्थूलता हटा दें और केवल मस्तिष्क से हटा दें, तो वह एक तरंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अर्थात् हम जिस संसार को स्थूल रूप में देख रहे हैं, वह तो हमारा दृष्टि दोष है। क्वांटम सिद्धांत (थ्योरी ऑफ लाइट क्वांटम) के अनुसार, जो वस्तु कण के रूप में है, वह उसी प्रकार से तरंग के रूप में है। साधारण अवस्था में हम उसे ठीक तरंग रूप में नहीं देख पाते। उसका और कोई कारण नहीं, वरन् हमारे मस्तिष्क का पदार्थ से बँधे रहना मात्र होता है।

इस सब जानकारी का उद्देश्य मनुष्य को विभ्रमित या आश्चर्यचकित करने का नहीं, वरन् उसके दृष्टिकोण को चौड़ा करना है, जिससे वह अपने शाश्वत स्वरूप को समझने की चेष्टा कर सकता है। हम अपने आपको कितना ही धोखा दें, कितना ही शरीर, समय और स्थान में बंधे हुए देखकर हमारा विशुद्ध 'अहंभाव' (शाश्वत स्वरूप) तो अपने नियमों से विचलित होने वाला है नहीं। तब फिर हमारे लिए अपने आपको पदार्थों की सीमा में बाँधना कहाँ तक उचित होगा ? कहाँ तक हम अपने मनुष्य-जीवन में आने के लक्ष्य को न पहचानने की भूल करते रहेंगे?

पदार्थ या स्थान और समय में कोई सत्यता नहीं है। कोई भी निश्चित एक ब्रह्मांड नहीं है, जिसमें कि संसार समा सके। अनेक ब्रह्मांड हैं और वह सब मस्तिष्क में समाये हुए हैं। एक कण प्रकृति का, एक अहंभाव, चेतना या परमेश्वर का—दो ही अनादि तत्त्व हैं। उनका विस्तृत ज्ञान जब तक नहीं, तब तक मनुष्य इस सांसारिक भूल-भूलैया में ही गोते लगाता रहेगा क्योंकि हम जिस सुख-शांति, संतोष और आनंद की खोज में हैं, वह पदार्थ में मस्तिष्क की अपनी अनुभूति है, इसलिए यथार्थ आनंद की प्राप्ति भी स्थान और समय से ऊपर उठकर ही प्राप्त की जा सकती है।

कोई मूलभूत समय भी नहीं है, जिसमें कोई घटना घटित हुई हो। निरीक्षण के अनुभव ही समय की रचना करते हैं और इसी समय से हम ब्रह्मांड को, स्थान को, अपने जीवन को नापते हैं। यदि हम अपने मस्तिष्क को समय से ऊपर उठा दें, तो अपने अमरत्व की अनुभूति ही नहीं—पदार्थ और ब्रह्मांडों के स्वामी बनते चले जा सकते हैं। हमारा मस्तिष्क अर्थात हम स्वयं ही सदैव ही जागरूक रहते हैं। परिवर्तनीय तो यह जड़ या प्राकृतिक परमाणु ही हैं और जब तक हम अपने आप में समाहित नहीं होते, प्रकृति पर न तो नियंत्रण कर सकते हैं और न ही उसका उपयोग।

उपर्युक्त संपूर्ण विवेचन अल्वर्ट आइंस्टीन के सापेक्षवाद (थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी) की व्याख्या मात्र है। इसे उन्होंने गणित के द्वारा सिद्ध किया है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि एक सरल रेखा का सरल या सीधा होना आवश्यक नहीं। संसार अंडाकार है। ब्रह्मांड सीमारहित है, किंतु अनंत नहीं और भी ब्रह्मांड हैं, जिनका ज्ञान पाना मानवीय बुद्धि के लिए संभव नहीं है। प्रकाश-कणों में भार होता है, जबकि भार पदार्थ में ही संभव है शक्ति में नहीं। (स्मरण रहे प्रकाश पदार्थ नहीं, शक्ति माना गया है।) मस्तिष्क प्रकाश से बना है। इस तरह यह साबित होता है कि, इस संसार में प्रकृति और परमात्मा, प्रकाश और पदार्थ, मस्तिष्क और चेतना दोनों अभिन्न हैं। मनुष्य-शरीर एक छोटा ब्रह्मांड और अपना मस्तिष्क छोटा परमात्मा हमारे अपने ज्ञान और स्थूलता के आधार पर उन्हीं से यह सारा संसार बना है।

संसार परमाणुमय है। परमाणुओं के मिलने से पदार्थ बनते हैं और पदार्थों से मिलकर स्थान, देश और ब्रह्मांड बने। इस ब्रह्मांड को ही हम पदार्थों के रूप में खाते हैं, पहनते हैं, उसी में रहते हैं। हमारा शरीर भी तो पदार्थ या परमाणुओं से बना हुआ है। यह भी एक प्रकार का ब्रह्मांड ही है। आइंस्टीन ने संभवतः शरीर रूपी पदार्थ जगत् (स्पेस) में एक मस्तिष्क-सतर्कता होने के विश्वास स्वरूप अपना यह मत व्यक्त किया था कि, प्रत्येक ब्रह्मांड को एक सतर्कता (सेंटीमेंट) नियंत्रण करती है अर्थात् पृथ्वी की या प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र की अपनी एक स्वतंत्र चेतना या अहं भाव है और वह मनुष्य के समान ही गणितीय आधार पर (इन दि मैथेमेटिक वे) काम करती रहती है अर्थात संसार मस्तिष्क द्वारा पदार्थों की रचना के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।

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    अनुक्रम

  1. भविष्यवाणियों से सार्थक दिशा बोध
  2. भविष्यवक्ताओं की परंपरा
  3. अतींद्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि व आधार
  4. कल्पनाएँ सजीव सक्रिय
  5. श्रवण और दर्शन की दिव्य शक्तियाँ
  6. अंतर्निहित विभूतियों का आभास-प्रकाश
  7. पूर्वाभास और स्वप्न
  8. पूर्वाभास-संयोग नहीं तथ्य
  9. पूर्वाभास से मार्गदर्शन
  10. भूत और भविष्य - ज्ञात और ज्ञेय
  11. सपनों के झरोखे से
  12. पूर्वाभास और अतींद्रिय दर्शन के वैज्ञानिक आधार
  13. समय फैलता व सिकुड़ता है
  14. समय और चेतना से परे

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